अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।
1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।
अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।
पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।
1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।
लाल कमल अभियान 1857 |
अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।
टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार) |
डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात |
पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।
फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को'
भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे एक जनवरी 1859 को लड़ते हुए शहीद हुए थे।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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